केवल दो परिवारों का कब्जा रहा है औरंगाबाद संसदीय सीट पर

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अनामी शरण बबल

औरंगाबाद/ नयी दिल्ली। नक्सल प्रभावित मध्य बिहार के संसदीय क्षेत्र औरंगाबाद बिहार के सबसे उपेक्षित और साधनहीन जिला होने के बावजूद पूरे भारत का ऐसा इकलौता क्षेत्र है, जहां पर आजादी के 72 साल में यहां की संसदीय राजनीति केवल दो परिवारों की दास बनकर रह गयी है। दो परिवारों के सिवा यहां पर संसदीय राजनीति का सपना देखने वाली पीढ़ी पनप ही नहीं सकी। साल 1996 में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार की हार के बाद औरंगाबाद में एक नया और अनोखा रिकॉर्ड बन गया। 1996 के लोकसभा चुनाव में पहली बार वीरेन्द्र सिंह नामक एक अनाम गुमनाम प्रत्याशी जनता दल के टिकट पर चुनाव जीतने का सौभाग्य अर्जित किया। प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के कार्यकाल में लगभग डेढ़ साल में ही सरकार का पतन हो गया और 1998 में फिर लोकसभा चुनाव कराया गया। जिसमे एक बार के सांसद रहे वीरेंद्र सिंह को दोबारा चुनाव जीतने का मौका नहीं मिला। बाद में अपने राजनीतिक जीवन को गतिशील रखने के लिए वीरेन्द्र सिंह ने विधानसभा का सहारा लिया और विधायक के रुप में वीरेन्द्र सिंह की राजनीति शान से चल रही है। यही वीरेन्द्र सिंह के बतौर संसद सदस्य के डेढ साल के कार्यकाल को काट दें तो औरंगाबाद संसदीय क्षेत्र में छोटे साहब के नाम से मशहूर रहे सतेन्द्र नारायण सिंह एंड संस के अलावा लूटन बाबू उर्फ रामनरेश सिंह एंड संस के अलावा राजपूत बहुत इस इलाके में आज़ तक संसदीय राजनीति का विकास नहीं हो पाया। 1952 से लेकर 1984 तक बतौर सांसद सतेन्द्र नारायण सिंह उर्फ छोटे साहब ही सांसद रहे। 28 अक़बर रोड के सरकारी आवास के अलावा पटना में ही रहने वाले छोटे साहब का औरंगाबाद में आना ही ख़बर की तरह होता था। सबसे निकम्मा सांसद होने के बाद भी केवल राजपूती आन-बान मान और शान के नाम पर चुनावी जीत का उपहार पाते रहे। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1989 में छोटे साहब को बिहार का मुख्यमंत्री भी बनाया, मगर खाली कारतूस की तरह बिहार से कांग्रेस के पैर जो उखड़े तो 30 साल यानी 2019, में भी कांग्रेस बिहार में अपनी खस्ताहाल से उबर नहीं पाई है। छोटे साहब भी दो बार सांसद बनने का दांव अपनाया मगर पराजित छोटे साहब के कद को औरंगाबाद ने बौना कर छोड़ दिया। बाद में उनकी पुत्रवधू श्यामा सिंह चुनाव में उतरी और सांसद बनी। बाद में छोटे साहब के इकलौते बेटे निखिल कुमार ने किस्मत आजमाईश की। दिल्ली पुलिस आयुक्त रह चुके निखिल कुमार यहां से सांसद भी बने। मगर 2019 लोकसभा चुनाव में इस बार टिकट पाने से वंचित रह गए। इस पर पूर्व सांसद निखिल कुमार ने कहा भी  कि औरंगाबाद से टिकट कटने का मुझे अफसोस है. मुझे औरंगाबाद से टिकट देने का आश्वासन मिल चुका था और मैं चुनाव की तैयारी कर रहा था. लेकिन पता नहीं अंतिम वक्त में मेरा टिकट कैसे कट गया.उन्होंने दावा किया कि अगर मुझे टिकट मिलता तो मैं जरूर चुनाव जीतता।. निखिल कुमार ने यह भी कहा कि औरंगाबाद से मुझे अभी तक चुनाव प्रचार करने के लिए भी नहीं कहा गया है. ऐसे में इस सीट को जीतने के लिए कार्यकर्ताओं को मनाना पड़ेगा। निखिल कुमार कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे हैं और वे पूर्व राज्यपाल भी रह चुके हैं. इतना ही नहीं उन्होंने निखिल कुमार की उम्मीदवारी तय मानी जा रही थी। जेडीयू के एमएलसी उपेन्द्र प्रसाद को यहां से मैदान में हैं। 1989 लोकसभा चुनाव में पहली बार रामनरेश सिंह उर्फ लूटन बाबू पहली बार यहां से सांसद चुने गए। इससे पहले वे विधायक रहे थे। लूटन बाबु बाबू के बाद कभी जेडीयू में नीतीश कुमार के साथ कनेक्ट रहे सुशील कुमार सिंह ने औरंगाबाद की बतौर बागडोर संभालने का जिम्मा लिया। अबतक तीन टर्म में सांसद रह चुके सुशील कुमार सिंह राजपूत प्रत्याशी होने के बाद भी अपनी सरलता सहजता सरसता मधुरता और मीठे स्वभाव के कारण सबसे लोकप्रिय नेता हैं। काम कराने में अबतक के सभी सांसदों से बहुत आगे निकल गए हैं। केवल अपने व्यवहार और सदैव इलाके में रहने के कारण इनके मतदाताओं को लगता है कि उनका नेता अपना नेता है। यही वजह है कि 2019 में भी सुशील कुमार सिंह के सामने चुनाव में विजय शंखनाद सरल सा लगता है।औरंगाबाद की राजपूती मतों के सहारे सांसद बनने का सपना देव भवानीपुर के शंकर दयाल सिंह एंड संस ने भी देखा। लेखक पत्रकार और चतरा से कभी सांसद रह चुके शंकर दयाल सिंह यहां से दो बार लोकसभा चुनाव में  उतरकर भी परास्त हो गए बाद में इनके पुत्र रंजन कुमार सिंह ने भी लोकसभा चुनाव में हाथ आजमाया मगर परिणाम पराजय का रहा। उल्लेखनीय है कि रामनरेश सिंह उर्फ लूटन बाबू और शंकर दयाल सिंह आपस में संबंधी है। शंकर दयाल सिंह के एमएलसी पिता दिवंगत कामता प्रसाद सिंह काम के छोटे बेटे अशोक सिंह लूटन बाबू के दामाद हैं। यानी दिवंगत शंकर दयाल सिंह भी इस नाते लूटन बाबू या सुशील कुमार सिंह के रिश्ते नाते में ही हैं। इसके बावजूद राजनीतिक प्रतिस्पर्धा ने संबंधों को सामान्य बनने नही दिया। तो यही है औरंगाबाद संसदीय क्षेत्र की राजनीतिक कहानी। जहां पर 11 अप्रैल को एक बार फिर यह तय होना है कि आजादी के 72 साल के बाद भी यह संसदीय क्षेत्र दो परिवारों के शिकंजे से मुक्त हो रहा है अथवा अपने सुशील स्वभाव के कारण इस बार की लड़ाई भी पहले की तरह ही रामनरेश सिंह उर्फ लूटन बाबु के सांसद पुत्र सुशील कुमार सिंह के सिर पर ही जीत का सेहरा बंधने जा रहा है। 

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