आधा गप्प पूरा सच / अनामी शरण बबल

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 -1/ लालू से प्यार और पीएम से रार?
             केंद्रीय जांच ब्यूरो मानी सीबीआई में महाभारत चल रहा है। पीएमओ और सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अवांछित सक्रियता से सीबीआई को बदल डाला। निदेशक सहित नंबर टू अधिकारी को जबरन अवकाश पर भेजा गया सारे अधिकार छीन लिए गये। सीबीआई में नया निदेशक रातो रात ले आया गया। तो इसके खिलाफ ब्यूरो के पूर्व निदेशक सुप्रीम कोर्ट पहुंच गये हैं तो ब्यूरो के एक दर्जन से अधिक अधिकारियों का तबादला कर दिया गया है। यानी कुर्सी संभालने से पहले ही निदेशक की आंच में ब्यूरो झुलसा जा रहा है। वही अपने ही दफ्तर में छापा मारकर सीबीआई के भीतर अविश्वास का वातावरण है तो सीबीआई को देश की जनता तोता तो कहती थी मगर तोता को इस तरह कभी भी बेनकाब नहीं होने दिया गया था।  केंद्रीय जांच ब्यूरो में इस समय वो सबकुछ हो रहा है जो नहीं होना चाहिए था। ज्यादातर अधिकारी अपने अधिकारियों की बजाय अपने कथित आकाओं के हुक्मरानों की चाकरी करते हैं अपने आकाओं को बचाने और दुश्मन पार्टी को फंसाने का शतरंजी खेल चल रहा है। एक तरफ नंबर टू पर रिश्वत लेने और बहुत-बहुत से मामलों में पक्षपात का आरोप है। कई मामलों की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीवीसी) में लंबित है। इस बीच आलोक वर्मा के घर से बाहर जासूसी कर रहे चार लोगों को पकड़ा गया। तो निदेशक अपनी छुट्टी के खिलाफ मामलें को सुप्रीम कोर्ट चले गये हैं। निदेशक आलोक पर आरोप है कि पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के करीबी रहे हैं। इस कारण कुछ मामलों की जांच धीमी गति से आगे बढ़ रही थी। कई मामलों की जांच को ज्यादा समय होने पर भी सीबीआई की खामोशी बरकरार है। इन पर राफेल मामले में ज्यादा रुचि लेने और इस संबधित फाईलों को इकठ्ठा करने करवाने का आरोप है। और नंबर टू अस्थाना के बीच अंदरूनी वार भी उबाल पर था। दोनों ने ही सीवीसी में शिकायतें दी थी। लगातार ब-दस्तूर सीबीआई की हालत में गिरावट थी। अंदर से महाभारत की खबरें पीएमओ तक जाने के बाद पूरे मामलें को तीन घंटे में ही साफ कर दिया गया। तबादलें करके जबरन छुट्टी पर जाने की कार्रवाई कर दिया गया। मगर काम निपटाने के बाद मामला और भी बदतर हो गया। विपक्ष सरकार को सीधे सीधे घेरने लगी है राफेल करप्शन का मुद्दा  भी विधानसभा चुनाव में लहरा सकता है। यानी तोता को इन्वेस्टिगेशन ब्यूरो अॉफ कांग्रेस कहने वाली भाजपा पर ही अब सीबीआई को बीबीआई उर्फ इन्वेस्टिगेशन ब्यूरो अॉफ भारतीय जनता पार्टी का आरोप लगने लगा है। तोताराम को तोता मानकर पिंजरे में बंद करने का फैसला कहीं चाल चरित्र चेहरा के लिए ठीक वही
2/ केवल जुबानी संवेदना?
                 राजनीति में क्या संवेदनहीनता है? अमृतसर रेल हादसे में गलती किसकी थी यह सवाल अब गौण हो गया है। आलू गाजर मूली की तरह एक झटके में पल भर में एक सौ से ज्यादा लोग कट गये। मौके पर ही साठ मारे गये हैं और जिनका इलाज किया जा रहा है पता नहीं वे कितने और किस लायक अपंग होकर जिंदा रहने का अभिशाप झेलेंगे? घटना के फौरन बाद ही राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और तमाम मंत्रियों संत्रियों अफसरों ने चक्कर काट कर लौट गये। सूबे के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह 18 घंटे के बाद मौके पर पहुंचे। मगर जुबान पर संवेदना अफसोस के दो बोल की बजाय वे बारबार यह बताते रहे कि इजराइल जा रहा था। दिल्ली हवाई अड्डे पर बैठा था तो सारा टूर कैंसल करके आ रहा हूँ। बिना किसी को देखे मिले सरदार जी मरने का ईनाम जिसे सरकारी शब्दावली में मुआवजे की घोषणा करके चलते बने। पीएम और राष्ट्रपति तो खैर सुपरपावर लोग हैं। इनके आने की तो कोई उम्मीद भी नहीं करता है। पर घटना की खबर पाते ही अमरीका के तमाम कार्यक्रम रद्द करके भरत लौटने की सुर्खियां बटोरने वाले केंद्रीय रेल मंत्री इस घटना के एक सप्ताह के बाद भी दिल्ली में ही आकर ठहर गये। यूपी में माया अखिलेश राज में बात बात पर नोएडा मेरठ गाजियाबाद जा जाकर किसानों दलितों गरीबों के आंसू पोछने वाले कांग्रेस के सुप्रीमो युवराज भी जुबानी संवेदना ही प्रकट कर पाए। सत्तारूढ़ पार्टी के न गृह मंत्री रक्षा मंत्री या कोई और मंत्री यहां पर आकर नकली आंसू भी बहाने से परहेज किया। और मजे की बात है कि अभी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। कभी-कभी लगता है कि यदि यही दुर्घटना अमृतसर की बजाय चुनावी राज्यों के भोपाल जयपुर या रायपुर आदि शहरों में हो  गया होता तो  मृतकों को देखने-सुनने टसूंए बहाने और सहानुभूति पाने के लिए तिजोरी खोलकर अधिकतर दलों के तमाम दलदली नेता किसी चील बार श्वान कुकुर की तरह खबरिया चैनलों पर अपना थोबडा दिखाने के लिए आतुर व्याकुल रहते। मगर बडी़ ह्रदय विदारक घटना होने के बाद भी इसमें सनसनी नहीं थी तो जनता की जनता द्वारा जनता की संवेदनशील सरकार के मुखियाओं के पास कहां इतनी फुर्सत की वे मृतकों को देखने के लिए मारे मारे फिरते रहें।
3/ नागरिकता के लिए धर्म जरूरी –
               भारत की आबादी भले ही चीन की रफ्तार से भी तेज होमगार्ड भारतीय नागरिकता छोड़कर विदेशी बन विदेशों में बसने का शौक परवान पर है तो दूसरे देशों के भी लाखों विदेशी लोग ऐसे हैं जो अपने देश की नागरिकता त्यागकर भारत में ही रच बस भारतीय हो जाने के लिए व्याकुल हैं। यह अलग प्रसंग है कि जितने लोग भारतीयों की भीड़ में शामिल होने को आतुर हैं उससे कहीं बहुत ज्यादा लोग भारत की आबादी आजादी हिंसा और जातीय संस्कृति को छोड़कर विदेशी या NRI होने के लिए पगलाये हुए हैं। यह अलग विषय है कि अब भारतीय बनने से पहले विदेशी मूल के नागरिकों को अपना धर्म और आपराधिक रिकॉर्ड का सर्टिफिकेट देना होगा।
 4/- मीटू के साथ अब गोम Gom
                              मीटू    ममीटू को आए अभी एक माह भी नहीं हुआ है कि यौन उत्पीड़न करने की कोशिश करने वालों में एक केंद्रीय मंत्री समेत एक सौ से अधिक फिल्मी दुनियां के कलाकारों निर्माताओं आदि के चेहरे को बेनकाब कर दिया। खेलों की दुनिया में उत्पीड़न के आरोपी एक कोच ने आत्महत्या तक कर ली। यानी शुरूआती झटके में ही लोगों के राज खुलने लगे। मीटू को लेकर सरकार भी  बडी़ संजीदा है। खासकर केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी की वकालत और पहल सू मिटू को सबल बनाने के लिए सरकार भी गंभीर है। इसी बीच यौन शोषण को सरकारी कार्यस्थल पर से रोकने और महिला वर्ग की आवाज को बुलंद करने के लिए ग्रूप अॉफ मिनिस्टर का गठन किया गया है। जिसके मार्फत यौन शोषण उत्पीड़न को रोकने शिकायतों पर कार्रवाई की व्यवस्था की गई है। यानी अभी तो केवल चिंगारी हैं भविष्य में न जाने किसकी किसकी बारी है। तो मर्दों सावधान।
 5/ हर साल  बेनामी गुमनाम लाखों बेमौत।
                हर दिन पूरे देश में अनगिनत लोग बेमौत मारे जाते हैं लाखों अपंग होकर लाचार जीवन के लिए अभिशप्त हो जाते हैं। फिर भी यह ना कोई मुद्दा बनता है और न इतनी बड़ी संख्या में लोगों के बेमौत का मामला ही कभी हमारी चिंता का विषय बना हो। रेलवे से कटकर हर साल पचास हजार मारे जाते हैं तो डेढ़ लाख से अधिक लोग अपंग होकर विकलांग हो जाते हैं। समय पर उपचार नहीं मिलने या गंभीर हाल से देश भर के अस्पतालों में कोई 40लाख से भी ज्यादा लोगों को बचाया नहीं जा पाता। एक्सीडेंटल डेथ से करीब आठ गुना लोग इस इन हादसों में किसी लायक नहीं रह जाते। बीमारी प्रकोप आदि से भी अलग अलग समय में छिटपुट मौतों का आंकड़ा भी सामूहिक तौर पर एक बडी़ तादाद बन जाती है। मगर टुकड़ों टुकड़ों में होने वाली इन मौतों से न सरकार चेतती है और ना ही सरकार का ध्यान ही इधर रह पाता है। डिजिटल इंडिया की इस त्रासदी को क्या कहा जा
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