सोशल मीडिया ही तय करेगा, इस बार चुनाव नतीजे

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सोशल मीडिया ने राजनीतिक पार्टियों और नेताओं की परंपरागत पहचान और लोकप्रियता को पूरी तरह बदल दिया। हैशटैग-वॉर राजनीति का नया अखाड़ा बन गया। नेताओं और लोगों के बीच संचार में सोशल मीडिया असरदार माध्यम बन गया! इससे राजनीतिक संचार के ढंग और तरीके को भी नया रूप मिला। सोशल मीडिया ने छोटी राजनीतिक पार्टियों और कम लोकप्रिय उम्मीदवारों को सामने लाने में भी भूमिका निभाई है। उनके कामकाज को सोशल मीडिया ने बढ़ाकर उनको राजनीतिक आधार दिया। इस मीडिया ने तो उम्रदराज नेताओं को भी मीडिया साक्षर बनने के लिए मजबूर कर दिया है। अब तो राजनीतिक पार्टियों के फैसलों पर सोशल मीडिया में गंभीर बहस भी चलने लगी! इस बार सोशल मीडिया पर चुनावी नतीज़ों की छाप साफ़ नजर आने वाली है। लेकिन, ये नहीं भूला जाना चाहिए कि यदि सोशल मीडिया इमेज बनाने की भूमिका निभाएगा तो उतनी ही सक्रियता से उसे बिगाड़ भी सकता है! इसलिए नेताओं और पार्टियों को इस दोधारी तलवार से सावधान रहना चाहिए!

समाज में सोशल मीडिया इतने गहरे तक रच-बस गया है कि उससे अलग होकर कुछ सोचा भी नहीं जा सकता। ऐसे में इस मीडिया के राजनीतिक प्रभाव से इंकार नहीं! विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया की भूमिका का महत्वपूर्ण होना तय है। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की ‘इमेज मेकिंग’ का एक बड़ा काम सोशल मीडिया ने ही किया था! अब 5 साल बाद ये मीडिया उससे कहीं ज्यादा समृद्ध हो गया है। अनुमान है कि मध्यप्रदेश समेत अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में सोशल मीडिया बड़ा गुल खिलाएगा! क्योंकि, सोशल मीडिया यदि किसी की इमेज बना सकता है, तो बिगाड़ भी सकता है।

सोशल मीडिया के प्रभाव की वजह से राजनीति पार्टियां और नेता अब अपना पक्ष रखने के लिए किसी और मीडिया के मोहताज नहीं रह गए! अब तो मुख्यधारा के मीडिया को पूर्वाग्रही तक माना जाने लगा है! राजनीति और समाज में सोशल मीडिया एक ताज़ा लहर जैसी है, जिसके ज़रिए वो टेक्नोलॉजी से समृद्ध उस युवा मतदाता तक पहुंचने लगा, जो राजनीति से पूरी तरह कटा हुआ था। सोशल मीडिया को राजनीतिकों द्वारा हाथों-हाथ लिए जाने का सबसे कारण ये था कि ये मीडिया किसी बिचौलिए के दखल मोहताज नहीं था। अब स्थिति ये है कि नेता और पार्टियाँ अपनी बात, अपने दावे और वादे मतदाताओं तक सीधे पहुंचा सकते हैं। अब उन्हें मुख्यधारा के मीडिया के सामने गिड़गिड़ाने की ज़रूरत भी नहीं रह गई! सोशल मीडिया ऐसा मंच बन गया जहां से वे अपने समर्थकों तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं। उनसे संवाद कर सकते हैं, उन्हें संबोधित कर सकते हैं और उनसे मुद्दों पर सलाह भी ले सकते हैं।

किसी ने सोचा नहीं होगा कि वक़्त के साथ दुनिया इतनी सिमट जाएगी कि राजनीति जैसा गंभीर विषय भी मुट्ठी में आ जाएगा। 80 के दशक तक पार्टियों और नेताओं की एक अलग ही छवि और लोकप्रियता होती थी! जो पार्टी के संघर्ष एवं उसके कामकाज के आधार पर बनती थी! लेकिन, माहौल बदल गया! अब तो पेशेवर लोगों ने सोशल मीडिया के जरिए पार्टियों और नेताओं की छवि को गढ़ना शुरू कर दिया है। उनकी खामियों को छुपाकर, खूबियों को इतना बढ़ा चढ़ाकर सोशल मीडिया पर दिखाया जाता है कि उसे देखने वाले भ्रमित हो जाते हैं। सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सोशल मीडिया के जरिए जो क्रांति आई है, कुछ साल पहले तक ये सोचना भी संभव नहीं था। सोशल मीडिया ने समाज की सोच के साथ-साथ राजनीति को भी हाई जैक कर लिया। आजादी के बाद राजनीति में जो कूटनीतिक व्यवहार और प्रोफेशनलिज्म हावी रहता था, आज उस पर टेक्नोलॉजी हावी है।

माना जाता है कि राजनीति को सोशल मीडिया पर लोकप्रिय बनाने का पहला सफल प्रयोग 2008 में अमेरिका में हुआ था। सोशल मीडिया का इन चुनावों के नतीजों पर इतना प्रभाव देखने को मिला कि इन चुनावों को ‘फेसबुक इलेक्शन ऑफ 2008’ कहा गया! अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में बराक ओबामा ने ये नया प्रयोग किया था! 2007 तक बराक ओबामा अमेरिकी राजनीति में एक सामान्य से सीनेटर थे! लेकिन, राष्ट्रपति चुनाव में उनकी समर्थक टीम ने डाटाबेस तैयार किया 2008 का अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव एक इतिहास बन गए। सोशल मीडिया ने वैश्विक स्तर पर एक क्रांति को जन्म दिया! ऐसा तूफान उठा जिसमें जो भी इस तकनीक से जुड़ा, वो पार लग गया और जिसने इस तकनीक को नहीं समझा, वो पिछड़ गया। सोशल मीडिया का बड़ा योगदान महिलाओं और युवाओं को राजनीति से जोड़ने का रहा है! इन दोनों के लिए राजनीति नीरस विषय रहा! लेकिन, सोशल मीडिया के माध्यम से ये दोनों ही वर्ग राजनीति पर अपने विचार रखने लगे हैं।

हमारे यहाँ सोशल मीडिया में चुनाव प्रचार का पहला प्रयोग 2014 के लोकसभा चुनाव में शुरू हुआ था! विकास पुरुष के रूप में नरेंद्र मोदी को प्रोजेक्ट करने में सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका रही! देश में ‘फेसबुक’ यूज़र्स की संख्या लगातार बढ़ रही है। देश का हर 7वां व्यक्ति कभी न कभी सोशल मीडिया का इस्तेमाल करता है। अमेरिका के बाद भारत ‘फेसबुक’ का सबसे बड़ा बाजार बन गया! भारत में ‘व्हाट्सएप्प’ तो वैसे भी दुनिया में सबसे बड़ा बाजार है। अधिकांश राजनीतिक दल सोशल मीडिया पर अपने प्रचार में करोड़ों खर्च कर रहे हैं। स्पष्ट है कि वे अपना पैसा पानी में तो नहीं डाल रहे हैं! फेसबुक, व्हाट्सएप्प, ट्विटर या यूट्यूब जैसे मीडिया पर राजनीतिक दलों का भरोसा है, उसके पीछे मॉस मीडिया की एक थ्योरी काम कर रही है। इसके मुताबिक, लोग जानकारी या विचारों के लिए इस मीडिया के जरिए किसी ओपीनियन मेकर को चुनते हैं। उसी की बात सुनी और कई बार मानी भी जाती है। इसे ‘टू स्टेप थ्योरी’ कहा जाता हैं।

पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव ने भी सोशल मीडिया को नई दिशा दी! कैंपेन, वायरल सेक्स सीडी कंटेंट और नेताओं के बयानों पर जोक इस बार के गुजरात चुनाव का अहम हिस्सा रहे! यह चुनाव इस बार जमीन से ज्यादा सोशल मीडिया पर लड़ा गया था। लेकिन, सोशल मीडिया सकारात्मक प्रभाव ही नहीं छोड़ता, इसका नकारात्मक प्रभाव भी तत्काल सामने आता है। सोशल मीडिया किसी नेता या पार्टी की इमेज बनाता है, तो सोशल मीडिया पर इमेज उतनी ही जल्दी बिगड़ती भी है। चार साल पहले जिस नरेंद्र मोदी को लोगों ने राजनीति के शिखर पर बैठाया था। इन दिनों सोशल मीडिया में चल रही जुमलेबाजी में उसी मोदी-सरकार की नीतियों और काम की जमकर खिंचाई हो रही है। भाजपा को सोशल मीडिया का अच्छा खिलाड़ी माना जाता है, लेकिन अब पार्टी के लिए सोशल मीडिया को हैंडल करना मुश्किल हो रहा है! ऐसी ही कुछ स्थिति मध्यप्रदेश में भी है, जहाँ सरकार और पार्टी पर लगातार हमले हो रहे हैं। पार्टी को चिंता है कि उसकी बिगड़ती छवि देश के अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी असर डाल सकती है। 2018 में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। भाजपा को सोशल मीडिया की मंझी हुई खिलाड़ी माना जाता है। पार्टी ऑनलाइन स्पेस में अच्छी खासी जगह रखती हैं, इसका ट्विटर बेहद ही एक्टिव है और सोशल मीडिया पर भी इसके मैसेज लोगों को आकर्षित करते हैं। ट्रोलिंग में भी पार्टी का जवाब नहीं, लेकिन पार्टी के लिए ऑनलाइन स्पेस में हो रही आलोचना और विरोध अब परेशानी बन गया है।

राजनीतिक प्रबंधन ने सोशल मीडिया का भी अभूतपूर्व इस्तेमाल किया और भारतीय लोकतंत्र की चुनाव संस्कृति को बदल दिया। व्हाट्सएप्प, ट्विटर, फ़ेसबुक और लिंक्डइन जैसी सोशल मीडिया साइट्स ने युवाओं के संवाद के ढंग को ही बदल दिया! राजनीति ने इसे अपने फायदे के रूप में पहचाना देखा कि यदि एक नेता सोशल मीडिया पर दस यूजर्स को प्रभावित करता है, तो वे दस यूजर्स और भी लोगों को प्रभावित कर सकते हैं। राजनीतिक दलों, नेताओं और उनके समर्थकों के प्रति नज़रिया बनाने या उसे बिगाड़ने में सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है! ख़ास बात ये कि राजनीतिकों ने उतनी ही  चतुराई से उसका इस्तेमाल भी किया है।

अब तो सोशल मीडिया पर चुनाव कैंपेन एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन है। यहाँ तक कि ये निर्णायक भूमिका भी अदा करने लगा है। मध्यप्रदेश में हर पार्टी के कार्यक्रमों की जानकारी, गतिविधियाँ, प्रदर्शन और मध्यप्रदेश सरकार की गड़बड़ियां सामने आ रही है। यूथ वोटर या फर्स्ट टाइम वोटर तक पार्टी की विचार धारा और दिल्ली सरकार के काम को पहुँचाने में यह टीम जी जान से जुटी हुई है। इस परिदृश्य को देखते हुए कहा जा सकता है कि अब वोटर्स को प्रचार से रिझाना या भरमाना पार्टियों के लिए संभव नहीं है। आज हर वोटर्स के हाथ में ऐंड्रोइड मोबाइल फ़ोन है जो सबकी खबर रखता है। अगला चुनाव तो वही जीतेगा, जो सोशल मीडिया पर वोटर्स का दिल जीतेगा! लेकिन, इस मीडिया के यदि लाभ हैं तो उतने खतरे भी हैं।

(हेमंत पाल, वरिष्ठ पत्रकार। ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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