‘जननेता’ जिसको सुनने के लिए स्वंय आते थे लोग

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जैसे नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी की सभा के लिए महीनों पहले से भीड़ जुटाने की रणनीति पर काम करना पड़ता है ऐसे दिन कभी अटल जी की सभा के लिए नहीं देखना पड़े। अटल जी की सभा यानी सिंहस्थ के स्नान की तारीख जहां बिना निमंत्रण के ही लोग अपने खर्चे से शामिल होते और इस दौरान होने वाली परेशानियों को भी भूल जाते। उज्जैन के क्षीरसागर मैदान या इंदौर के जनता चौक राजवाड़ा की आमसभा हो अपार जनसमूह बिना पुलिस की सख्ती के सवअनुशासन में बंधा नजर आता था। इन शहरों में आज जिन नेताओं की प्रखर वक्ता के रूप में पहचान बनी है ज्यादातर उन दिनों अटल जी के आगमन से पूर्व मंच संभाला करते थे। विदिशा से जब अटल जी ने लोकसभा चुनाव लड़ा तब शिवराज सिंह भाजयुमो अध्यक्ष के रूप में प्रचार इंतजाम देखते थे और जब अटल जी ने इस सीट से इस्तीफा दिया तब युवा शिवराज को पार्टी ने विदिशा से लोकसभा चुनाव लड़ाया था।

कविता के मंच पर सुमन जी और राजनीति में अटल जी ये दो ही ऐसे वक्ता देखे जिन्हें सुनते वक्त श्रोता सम्मोहित हो जाते थे। समर्थक और अनुयायी तो इसी से खुश होते रहते थे कि घोर विरोधी भी अटल जी को सुनने आते हैं। हाजिर जवाबी, वाक पटुता, हास-परिहास और अपनी बात मनवाने का अंदाज ये सारी खासियत सभा से लेकर संसद तक राजनीति के इस अटल ध्रुव तारे की चमक में देखी जा सकती थी। मौत तो अजित वाडेकर को भी आई, अटल जी भी नहीं रहे। उनके जाने से देश दुख में है तो इसलिए कि अटल जी जैसे व्यक्तित्व और उनके जैसी राजनीति अब नजर नहीं आएगी।बड़े लोगों के साथ दिक्कत भी कम नहीं चाह कर भी अपनी इच्छा से अंतिम सांस नहीं ले सकते। जिस तरह एम्स में बुधवार से पीएम सहित अन्य मंत्रियों का और गुरुवार की सुबह से ही तमाम मुख्यमंत्रियों, विपक्षी नेताओं का तांता लगा हुआ था पूरा देश जान चुका था कि मृत्यु अटल है लेकिन वीवीआईपी हो जाने की अपनी जो परेशानियां हैं वह मौत की घोषणा भी अपनी सुविधा से तय करती है।

अब भाजपा के लिए नेहरू भले ही दुर्गुणों की खान होते जा रहे हों लेकिन उसके आज के तमाम नेताओं को यह कहते हुए तो गर्व ही होगा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री के रूप में पं. नेहरु भी अटलजी के व्यक्तित्व और वाकपटुता से इस कदर प्रभावित थे कि यह भविष्यवाणी कर चुके थे कि अटल जी एक दिन भारत के प्रधानमंत्री जरूर बनेंगे। और हां आज जो मोटा भाई और प्रधान सेवक जी कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को पूरा करने में जी जान से जुटे हैं इसकी भविष्यवाणी भी 20 साल पहले 1997 में नेता प्रतिपक्ष अटल बिहार वाजपेयी ने संसद में करते हुए कहा था मेरी बात को गांठ बांध लें, आज हमारे कम सदस्य होने पर कांग्रेस हंस रही हैं लेकिन वो दिन भी आएगा जब पूरे भारत में हमारी सरकार होगी।

अटल जी के जाने की भरपाई तो हो ही नहीं सकती क्योंकि अटल जी ने राजनीति में जो मूल्य स्थापित किए उनका पालन आज के भाषण बहादुर नेता कर लें यह संभव नहीं। भाषण में आगे निकलना आसान है लेकिन वैसा उदार होना संभव नहीं। 2003 में जब मप्र सूखे की विभीषिका से जूझ रहा था और तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने केंद्र से पैकेज की मांग की थी। उस वक्त की राजनीतिक परिस्थितियों को लेकर मप्र के भाजपा सांसदों का प्रतिनिधि मंडल दिल्ली में प्रधानमंत्री वाजपेयी  से मिलने गया था। शिवराज सिंह चौहान उनकी उदारता का जिक्र करते हुए किसी चैनल पर कह रहे थे कि हम सब ने कहा कि राहत राशि जारी मत कीजिए, चुनाव में दुरुपयोग  कर सकते हैं। तब अटलजी ने कहा था राजनीति में मतभेद अपनी जगह लेकिन मप्र की चुनी हुई सरकार के साथ ऐसा अन्याय नहीं कर सकता।

मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात में गोदरा कांड के कारण भड़के दंगों का वह किस्सा तो जगजाहिर है जब 4 अप्रैल, 2002 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अहमदाबाद पहुंचे थे। यहां उन्होंने एक प्रेस कॉंफ्रेंस के दौरान पूछे गए सवाल के जवाब में कहा था एक चीफ मिनिस्टर के लिए मेरा एक ही संदेश है कि वो राजधर्म का पालन करें। राजधर्म.. ये शब्द काफी सार्थक है. मैं उसी का पालन कर रहा हूं, पालन करने का प्रयास कर रहा हूं। राजा के लिए, शासक के लिए प्रजा-प्रजा में भेद नहीं हो सकता. न जन्म के आधार पर-न जाति के आधार पर, न संप्रदाय के आधार पर।

राजनीति में अब जो वैचारिक भिन्नता को दुश्मनी की नजर से देखा जाने लगा है यह नेहरु-इंदिरा-अटलजी के वक्त नहीं था। प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव तो अटलजी को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। नेहरु-इंदिरा यदि चाहते थे कि डॉ लोहिया और अटल जी जैसे व्यक्तित्व संसद में होना चाहिए तो वो अटल जी ही थे जो पाकिस्तान को सबक सिखाने वाली इंदिरा गांधी की खुले दिल से संसद में सराहना करते थे। ये उदारमना अटल जी ही थे जिनके वक्त पोखरण परमाणु परीक्षण हुआ और उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री के दिए नारे जय जवान, जय किसान को बदला नहीं बल्कि इसके साथ जय विज्ञान भी जोड़ दिया। बड़नगर जैसे छोटे से शहर ने कवि प्रदीप और अटल जी ये ऐसे व्यक्तित्व तैयार किए जिन पर हर किसी को नाज है। अटल जी कवि तो थे ही,  राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, वीरअर्जुन के पत्रकार भी रहे और प्रखर वक्ता ऐसे कि संसद में विरोधी भी टकटकी लगाए सुनते थे।संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में हिंदी में भाषण देने वाले पहले व्यक्ति के रूप में विश्वमंच पर उन्होंने ही हिंदी का मान बढ़ाया था। अब बढ़ा अटपटा लगता है जब विश्व व्यक्तित्व बनने की चाह में हमारे नेता उधार की भाषा में गर्व से अपने देश की खूबियां गिनाते हैं।

अटल जी को भारतीय राजनीति की दिशा मोढ़ने का भी श्रेय जाता है। केंद्र में भी छोटे-छोटे दलों को साथ लेकर एनडीए सरकार बनाई जा सकती है यह अटलजी के करिश्माई व्यक्तित्व का ही जादू रहा कि तीन दर्जन दल एक डोर में बंध गए और अटल जी देश के पहले ऐसे गैर कांग्रेसी पीएम रहे जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूर्ण किया।

दस साल….! जो व्यक्तित्व अपने चिर परिचित हास्य और वाकपटुता से दिलों पर राज करता रहा, वह स्मृति दोष का शिकार हो जाए! इससे बड़ा झटका और क्या होगा।सारा देश जिसे ‘भारत रत्न’ दिए जाने से खुशी से झूम उठे और खुद उसे ही पता न चले कि राष्ट्रपति यह सम्मान देने घर आए हैं! इन वर्षों में निरंतर उनके स्वास्थ्य को लेकर खबरें आती रहीं तो समझदार होते किशोरों को अटलजी की जानकारी भी है, इसी तरह की परेशानियों से जूझ रहे जार्ज फर्नांडिस के विषय में कितने लोगों को पता है कि वे एकाकी जीवन बिता रहे हैं।

जनसंघ के संस्थापकों में से एक अटलजी 1968 से 73 तक इसके अध्यक्ष भी रहे। संसद में जब भाजपा की दो सीट थी और वह कांग्रेस के मुकाबले मजबूती से खड़े होने के लिए संघर्ष कर रही थी तब उसकी रैलियों में एक नारा खूब लगाया जाता था ‘भाजपा की तीन धरोहर, अटल, आडवानी और मनोहर’। अटल जी तो बीते दस वर्षों से परिदृश्य से ओझल हो गए, आडवानी किन्हीं कार्यक्रमों में मोदी का अभिवादन करते दिखाई देते हैं, कैमरों की नजर तो उन पर पड़ जाती है लेकिन बाकी की नजर नहीं पड़ती, तीसरी धरोहर मुरली मनोहर जोशी भाजपा की संरक्षित इमारत हो गई है। पता नहीं मार्गदर्शक मंडल के लिए करोड़ों के उस कारपोरेट ऑफिस में आरामकुर्सी भी है या नहीं। अटल जी के अंत से क्या मान लिया जाए कि जनसंघ से बनी उस भाजपा के एक युग का अंत हो गया है या अटल जी की स्मृति में ही सही उस पीढ़ी की धरोहरों के दिन भी फिरेंगे?

(कीर्ति राणा, वरिष्ठ पत्रकार। ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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