पाकिस्तान सेना से सामंजस्य बनाना इमरान ख़ान की बड़ी चुनौती

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इमरान ख़ान तैयार हैं। दो दशक से वे इस घड़ी का इंतज़ार कर रहे थे। फ़ौजी समर्थन ने उनकी किस्मत का बन्द दरवाज़ा खोल दिया। जानना दिलचस्प है कि जिस वोट की ताक़त ने उनकी ज़िंदगी बदली,उस वोट में उनका चालीस साल की उमर  तक यक़ीन ही नहीं था। इसलिए पार्टी बनाने से पहले उन्होंने कभी वोट ही नहीं डाला। क़रीब बयालीस साल की आयु में इमरान ने पहला वोट डाला। अब शायद वे अपनी जाति भी लिखना शुरू कर दें, जो 1971 के भारत – पाक युद्ध से पहले तक लगाते थे। इमरान का सरनेम नियाज़ी है। जंग के बाद जनरल नियाज़ी ने अपनी सेना के साथ भारत के सामने हथियार डाले थे। इसके बाद बहुत लोगों ने नियाज़ी लिखना छोड़ दिया था।

लेकिन इस जीत ने इमरान की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। अब तक उनकी कोई विचारधारा नहीं रही है। उन्हें बेपेंदी का लोटा माना जाता था। लेकिनअब उन्हें घरेलू और बाहरी मामलों में अपनी नीतियाँ स्पष्ट करनी होंगीं। अड़ियल घोड़े याने आर्मी की सवारी भी करनी होगी, जो आसान नही है। हालांकि जिस तरह वे गंभीर से गंभीर मसले में अपनी राय बदलते रहे हैं, उसे देखते हुए उनके लिए फ़ौज से तालमेल बिठाना कठिन नहीं लगता। पर यह हनीमून कितना चलेगा कहना मुश्किल है। एक बानगी काफी होगी। जब नवाज़ शरीफ को हटा कर परवेज़ मुशर्रफ ने तख़्ता पलट किया था, तो इमरान ने जनरल का समर्थन किया था। लेकिन अगले साल जब मुशर्रफ ने राष्ट्रपति की कुर्सी हथियाई, तो इमरान विरोध में खड़े हो गए थे। जब मुशर्रफ ने 2007 में इमरजेंसी लगाईं तो इमरान को घर में नज़रबंद कर दिया गया था। उसी फ़ौज से उन्होंने हाथ मिलाकर चुनाव लड़ा। पाकिस्तान की सेना को हरदम एक कमज़ोर और नया नया राजनेता पोसाता रहा है। जैसे ही सेना के इशारे पर वह राजनेता नाचना बंद कर देता है, सेना उसके नीचे की जाजम खींच लेती है। इसलिए इमरान और आर्मी के रिश्ते कितने लंबे चलते हैं – देखना दिलचस्प होगा।

पाकिस्तान को दिवालिया होने से बचाना इमरान के लिए गंभीर चुनौती है। प्रचार के दौरान वे कहते रहे हैं कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो विश्व बैंक से मदद लेना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता होगी। पाकिस्तानी रूपए की क़ीमत रसातल में है। एक डॉलर 120  रूपए का है। अंतर्राष्ट्रीय क़र्ज़ क़रीब 100  बिलियन डॉलर हो गया है। निर्यात लगातार गिरते हुए 20 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। चीन के साथ चल रही आर्थिक कॉरिडोर के ठेकेदारों के लगभग पाँच सौ करोड़ रूपए के चैक बाउंस हो गए हैं। आम आदमी कराह रहा है।समस्या यह है कि इमरान के पास आर्थिक सुधारों को अमलीजामा पहुँचाने वाली टीम नहीं है।मँहगाई आसमान पर है और सेना अपने ख़र्चों में कटौती तथा आतंकवादियों को मदद में कमी किसी भी सूरत में नहीं करेगी। ऐसे में जल्द ही अवाम का मोहभंग होने का ख़तरा इमरान के सामने है।

एक मसला कटटरपंथियों और उग्रवादियों को संरक्षण देने का भी है। कश्मीर के नाम पर भारत के ख़िलाफ़ ज़हर उगलने वालों को संरक्षण देना अब तक वहाँ राजनेताओं की मजबूरी रही है।  इमरान इसे रोने में बहुत कामयाब नहीं होंगे क्योंकि कश्मीर के मसले पर उनका रवैय्या भारत को कभी पसंद नहीं आएगा।वे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के ज़रिए इस मुद्दे का हल चाहते हैं ,जो भारत की नीति के अनुकूल नहीं है। पार्टी की जीत के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में भी उन्होंने कश्मीर को लेकर कोई ठोस पहल का प्रस्ताव नही किया है। उन्होंने वही कहा,जो उनके पूर्ववर्ती कहते रहे हैं।

बीते दिनों जब भारत ने पाक सीमा के भीतर सर्जिकल स्ट्राइक की थी तो इमरान ने खुल्लमखुल्ला कहा था कि वे हिन्दुस्तान को बताएँगे कि सर्जिकल स्ट्राइक का उत्तर कब और कैसे दिया जाता है। याने आतंकवाद को समर्थन देने की पाकिस्तानी नीति में कोई ख़ास तब्दीली नहीं आने वाली है। नवाज़शरीफ़ ने जब स्वीकार किया था कि कारगिल जंग पाकिस्तान ने छेड़ी थी और मुंबई में धमाके भी पाकिस्तान समर्थित थे तो इमरान ने कहा था कि नवाज़ मियाँ हिन्दुस्तान और नरेंद्र मोदी के चहेते हैं। इसके अलावा सबसे मुश्किल तो उन्हें हाफ़िज़ सईद से निपटने में आएगी। सईद को आर्मी ने भुट्टो और शरीफ़ परिवारों के वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए खड़ा किया था। इसका फायदा सीधा सीधा इमरान को मिला है। अब हाफ़िज़ सईद नाम के जिन्न को वापस बोतल में कैसे बंद करेंगे – कठिन सवाल है। राहत की बात तो यह है कि हाफ़िज़ सईद को एक भी सीट नहीं मिली है। एक तरह से पाकिस्तान की जनता ने साफ़ साफ़ और सख़्त सन्देश दिया है कि वह आतंकवादियों को समर्थन नहीं देती।मगर जिन्न तो जिन्न है। आपको याद होगा कि चुनाव से पहले पख्तूनख्वा प्रांत में इमरान की पार्टी गठबंधन सरकार चला रही थी।  इस सरकार ने इमरान के निर्देश पर 30 लाख डॉलर हक्कानी नेटवर्क के मदरसों को दिया था।  यह नेटवर्क भारत विरोधी है और पाकिस्तानी तालिबान कहलाता है,जो कश्मीर और अफगानिस्तान में आतंकवादी हिंसा को अंजाम देता है। एक निर्वाचित सरकार विकास के काम छोड़कर औपचारिक रूप से इमरान के निर्देश पर उग्रवादी गुटों को पैसा बांटती है। ऐसी  नीतियों पर इमरान कैसे लग़ाम लगाएँगे ?

इमरान के लिए पकिस्तान की विदेश नीति में बदलाव करने की बहुत गुंजाइश नहीं है और मुल्क़ की यह नीति आमूल चूल तब्दीली  की माँग करती है। एक ज़माने में इमरान ख़ान परवेज़ मुशर्रफ़ पर इलज़ाम लगाते रहे हैं कि वे अमेरिका और ब्रिटेन के पिछलग्गू हैं। उन्होंने यहां तक कहा था कि मुशर्रफ़ जॉर्ज बुश के तलवे चाटते हैं। जब पाकिस्तान की समूची फ़ौज ही अमेरिकी इशारे पर काम करती हो तो इमरान उस पर अंकुश कैसे लगाएँगे -यह यक्ष प्रश्न है। इसी तरह पाकिस्तानी अर्थ व्यवस्था पर धीमे ज़हर की तरह चीनी असर रोकना उनके लिए नामुमकिन सा नज़र आता है। चीन के बैंक खुलते रहे,चीनी मुद्रा प्रचलन में आई, आम आदमी चीन के विरोध में सड़कों पर उतरे, चीनी इंजीनियरों की पिटाई हुई। इमरान ने अपने देश में चीन के बढ़ते दखल को हमेशा नापसंद किया। चीन -पाक आर्थिक गलियारे के अनेक प्रस्तावों पर इमरान बुनियादी तौर पर असहमत रहे हैं मगर यह भी सच है कि हाफ़िज़ सईद के मसले पर और आतंकवाद के मसले पर पाकिस्तान की भूमिका को चीन हमेशा संरक्षण देता रहा है।  चीन के रौब से बाहर निकलने के लिए पाकिस्तानी छटपटा रहे हैं।  ज़ाहिर है अवाम की भावना और चीन की भक्ति में से कोई एक पक्ष चुनना इमरान के लिए बेहद कठिन है। इमरान के लिए अपनी प्लेबॉय की छबि ,महिलाओं से रिश्ते,विवादों से घिरे रहने की उनकी आदत और किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लेने की आदत के चलते इमरान अपने सामने खुद एक बड़ी चुनौती हैं।  कम से कम ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, नवाज़शरीफ़, बेनज़ीर भुट्टो और आसिफ़ अली ज़रदारी इस मामले में यक़ीनन उलट छबि रखते थे।  पाकिस्तान की अवाम के बीच चुटकुले न बनें, इसके लिए इमरान को अपने आप में बड़ा बदलाव करना ही होगा।

इस आलेख का समापन मैं इस अच्छे तथ्य के साथ करना चाहूँगा कि इस बार के चुनाव निस्संदेह पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक जड़ों को थोड़ा गहरा करते दिखाई देते हैं। पहली बार लगातार तीन चुनावों के ज़रिए वहां निर्वाचित प्रतिनिधि सत्ता में आए हैं। सेना अब परदे के पीछे से किंगमेकर की भूमिका भले ही निभाए और राजनेता अपनी शुरुआत कठपुतली सरकार से करें मगर यह भी सच है कि अक्सर अनाड़ियों को भी अभ्यास करते करते अभिनय आ ही जाता है।  हिन्दुस्तान के लिए पाकिस्तान में जम्हूरियत उतनी ही आवश्यक है, जितनी खुद पाकिस्तान के लिए।

(राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार। ये लेखक के अपने विचार हैं)

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